Thursday 13 February 2014

68 साल के रिटायर्ड आर्मी अधिकारी के इस हौसले को आप भी सलाम करेंगे

मोटरसाइकिल से देश में सबसे लंबी यात्रा कर रिकार्ड बनाने निकले 68 वर्षीय रिटायर्ड आर्मी अधिकारी मोहम्मद अब्दुल कलीम सार्क देशों की बाइक से यात्रा करनेवाले पहले भारतीय हैं. उनकी मोटरसाइकिल पर जीपीएस लगाया गया है. जिसके माध्यम से मुंबई की संस्था हाइवे किंग्स द्वारा उनकी यात्रा की निगरानी की जा रही है. आंध्रा के हैदराबाद निवासी मोहम्मद अब्दुल कलीम ने बताया कि वे मोटरसाइकिल से देश में सबसे लंबी यात्रा कर रिकार्ड बनाना चाहते हैं. ऐसा कर वे अपना व अपने देश का नाम रोशन करना चाहते हैं.

कलीम का कांकेर राज परिवार द्वारा बुधवार को यहां पहुंचने पर स्वागत किया गया. इस दौरान उनकी यात्रा हैदराबाद से तामिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, असम, कोलकाता और ओडिशा होते हुए छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया है. इस दौरान अब तक कुल 12365 किलोमीटर की दूरी तय की गई है.

उन्होंने बताया कि वर्तमान में सबसे अधिक दूरी का रिकॉर्ड ब्रिटेन के किसी व्यक्ति के नाम है. जिन्होंने 29 हजार किलोमीटर की यात्रा दो व्यक्तियों के साथ मोटरसाइकिल पर की है. उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी यात्रा एक जनवरी को हैदराबाद से शुरू की है, जिसमें वे अकेले ही निकले हैं.

कलीम ने बताया कि उनकी मोटरसाइकिल पर जीपीएस लगाया गया है, जिसके माध्यम से मुंबई की संस्था हाइवे किंग्स द्वारा उनकी यात्रा की निगरानी की जा रही है.

हैदराबाद से लद्दाख की सबसे ऊंची सड़क तक सबसे अधिक बार यात्रा करने वाले एमए कलीम पहले व्यक्ति हैं. उन्होंने बताया कि वे 47 वर्षों से मोटरसाइकिल पर यात्रा कर रहे हैं. सबसे अधिक बारह बार लद्दाख की सबसे ऊंची सड़क जिसे के.2 रोड के नाम से भी जाना जाता है, उसकी यात्रा की है.

साथ ही अकेले ही सिक्किम स्थित नाथूला दर्रा की यात्रा भी बाइक से की है. सार्क देशों की यात्रा भी मोटरसाइकिल पर करने वाले वे पहले भारतीय हैं. उन्होंने बांग्लादेश, भूटान, नेपाल व पाकिस्तान की यात्रा की है.

बाइक पर देश की सबसे लंबी यात्रा के लिए निकले कलीम ने कहा कि आज बाजार में कई तरह की मोटरसाइकिल उपलब्ध है. माता-पता अपने बच्चों को मोटरसाइकिल खरीदकर दे देते हैं, लेकिन उन्हें बच्चों को सुरक्षा के प्रति भी जागरूक करना चाहिए. बाइक चलाते समय हेलमेट लगाना जरूरी है. साथ ही नियंत्रित वेग से ही वाहन चलाना चाहिए. लाइसेंस व वाहन के कागजात पूरे होने चाहिए.

उन्होंने हरे भरे भारत का संदेश देते हुए कहा कि वे जहां भी जाते हैं, एक पौधा अवश्य लगाते हैं. पेड़ से हमारा अस्तित्व है इसलिए हमें इनकी रक्षा करना चाहिए. रिकार्ड बनाने के लिए बाइक यात्रा पर निकले कलीम का स्वागत हर राज्य में जोश खरोश के साथ होता है और वे भी लोगों को पर्यावरण और यातायात नियमों का सन्देश देना बिल्कुल भी नहीं भूलते.
                                                                                                                                                    By:-Abp News

Saturday 16 November 2013

भारत की बालविवाह उन्मूलन के प्रति प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिन्ह ? : किशोर

पिछले दिनों भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कौंसिल द्वारा बाल विवाह और जबरन विवाह के खिलाफ पेश किये गए प्रस्ताव का सह प्रायोजक बनने से इनकार कर दिया.यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने किस्म का पहला वैश्विक प्रस्ताव था जिसमे बाल विवाह, कम आयु में विवाह और जबरन विवाह के पूर्णतः उन्मूलन और इसे 2015 के बाद अंतर्राष्ट्रीय विकास के अजेंडे में लाने की बात कही गयी थी. 
गनीमत यह है कि ये प्रस्ताव सर्वसहमति से पास हों गया और भारत के इसका विरोध करने की नौबत नहीं आई जैसा कि कुछ अख़बारों ने लिखा था. लेकिन फिर भी ऐसे प्रस्ताव का सह प्रायोजन ना करना भारत की बाल विवाह के खिलाफ मुहीम पर कई प्रश्न खड़े करता है जिसका जवाब उसको देना होगा.
भारत दुनिया भर में बाल विवाह की राजधानी की तौर पर जाना जाता है. दुनिया भर में हुए 6 करोड बाल विवाहों में से 40% बाल विवाह हिंदुस्तान में हैं यानेकि 2.4 करोड़ बाल विवाह हमारे देश में हुए है जो संख्या के हिसाब से दुनिया भर में सबसे अधिक हैं भारत में 20 से 24 वर्ष आयुवर्ग की महिलाओं के बीच हुए सर्वे के नतीजो के अनुसार 46% महिलाओं की शादी 18 वर्ष की उम्र से पहले कर दी गयी थी और 18% की 15 वर्ष से पहले.
हिन्दुस्तान में अब बाल विवाह के खिलाफ एक बेहतरीन क़ानून है पर उसके आधे अधूरे और बेमन से पालन के कारण आज भी ये समस्या विकराल रूप धारण करी हुई है और शायद यही कारण है कि भारत ने इस प्रस्ताव का सह प्रायोजन नहीं किया. अगर वो इसका सह प्रायोजन करता तो पूरी दुनिया की निगाहे भारत पर होती कि वो बाल विवाह कानून का कितनी सख्ती से पालन कर रहा है.
बाल विवाह अपने आप में मानव अधिकार का हनन तो है ही पर साथ ही साथ ये कई अन्य बाल अधिकारों का भी हनन करता है. इसके कारण बच्चों के शिक्षा, स्वास्थ्य और खेलने कूदने के अधिकारों का भी हनन होता है और उन्हें समय से पहले ही एक व्यस्क का जीवन जीने पर मजबूर कर दिया जाता है. कुल मिलाकर देखें तो यह मानवता के नाम पर एक बहुत बड़ा कलंक है.
आंकडो की माने तो पिछले पन्द्रह सालों में बाल विवाह में 11% की गिरावट आई है, जो सराहनीय है पर विषय की गंभीरता को देखते हुए नाकाफी है. भारत का इस प्रस्ताव का सह प्रायोजन ना करना चौकाने वाला है क्योंकि हाल ही में हमने बाल विवाह के खिलाफ कानून में तब्दीली लाकर इसे और सख्त बनाया है और जल्द ही हमारा देश इस सामाजिक बुराई के खिलाफ लड़ने के लिए एक राष्ट्रीय योजना बनाने वाला है. भारत के साथ साथ एशिया के अधिकतर देशों (मालदीव को छोडकर ) ने इस प्रस्ताव का सह प्रायोजन नहीं किया.
कुछ अख़बारों ने सरकारी अफसरों से भारत के इस प्रस्ताव के सह प्रायोजन ना करने का कारण पूछा तो उनके जवाब काफी हास्यास्पद थे. एक सरकारी अफसरान के अनुसार इस प्रस्ताव में कम आयु में विवाह  को स्पष्टतः परिभाषित नहीं किया गया है. ये बात कुछ गले नहीं उतरती क्योंकि महज ये कारण था तो भारत इसका स्पष्टीकरण मांग सकता था और जरूरत पड़ने पर इसमे बदलाव की मांग भी कर सकता था. इस प्रस्ताव के सह प्रायोजन ना करने के कारण भारत की पूरी दुनिया भर में जो फजीहत हुई है वो काफी शर्मनाक है. खासकर तब जब दक्षिणी सूडान, इथोपियाए, चेड और ग्वातामाला जैसे देशों ने इसका समर्थन किया है. इन देशों में भी बाल विवाह की समस्या व्यापक रूप से मौजूद है पर वहां की आर्थिक व्यवस्था भारत से बहुत कमजोर है, इसके बावजूद भी इन देशों ने बाल विवाह के खिलाफ जो दृढ़ संकल्प दिखाया है वह सराहनीय है.तकनिकी रूप से सह प्रायोजन ना करना कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है पर अगर भारत इसका सह प्रायोजन करता तो उसके पास पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल पेश करने का मौका था जो उसने गँवा दिया. इस विषय पर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रस्ताव का सह प्रायोजन करके भारत सरकार चुनावो से ठीक पहले एक समुदाय विशेष को नाराज नहीं चाहती थी जो कम आयु के विवाहों का समर्थन कर रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ऐसा भारत ने पहली बार नहीं किया है. बाल अधिकार समझौते पर आज भी भारत ने अनुच्छेद 32 द्वारा इस समझौते एक शर्त लगा रखी है जिसमे उसका कहना है कि वो अपने देश से बाल मजदूरी खत्म नहीं कर सकता क्योंकि यहाँ गरीबी और अशिक्षा बहुत है. यह शर्त हमारे देश ने 1992 में लगाई थी और हमारा देश आज तक इस पर कायम है. पिछले दो दशको में हिन्दुस्तान ने औसतन प्रतिवर्ष 5.7% से लेकर 10.5% की दर से विकास करके पूरी दुनिया में अपनी आर्थिक ताकत का डंका बजाया है. पूरी दुनिया में एक बड़ी उभरती आर्थिक ताकत के रूप में अपनी छवि स्थापित करने के बाद अपनी गरीबी की दुहाई देना किसके गले उतरेगा. पूरी दुनिया में सभी देशों ने बाल अधिकार समझौते का समर्थन किया है जिनमे वो देश भी शामिल है जो आर्थिक विकास की दृष्टि से भारत से बहुत पीछे है, लेकिन आर्थिक कमजोरी ने इन देशों को बाल मजदूरी के खिलाफ लड़ाई में कमजोर नहीं किया, जहाँ तक अशिक्षा के बहाने का सवाल है तो सरकार को यह सवाल करना खुद से करना चाहिए कि आज़ादी के 66 साल बाद भी देश में इतने व्यापक स्तर पर अशिक्षा क्यों है. कोठारी कमीशन ने साठ के दशक में सकल घरेलु उत्पाद का 6% शिक्षा पर खर्च करने का सुझाव दिया था जो आज तक अमल में नहीं लाया जा सका. भारत इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में भी शिक्षा पर अपने सकल घरेलु उत्पाद का 4: से ज्यादा खर्च नहीं करता जबकि कोंगो जैसे आर्थिक रूप से तथाकथित कमजोर देश भी शिक्षा पर लगभग 7% खर्च कर रहे हैं.
हिंदुस्तान बहाने कुछ भी दे पर सच्चाई ये हे कि वह अपने देश में बच्चों के अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है.

उन्नाव का सोना और विश्वास के आगे समर्पण

अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब एक दिन यह ज्ञात हुआ के नई दिल्ली में स्थित तथाकथित अग्रसेन की बावली को अगरवाल समाज के हवाले कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने ए एस आई से यह कहा था के इस बावली का निर्माण महाराजा अग्रसेन ने किया था जो अगरवाल समाज के संस्थापक थे. उनका कहना था कि इसलिए अगरवाल समाज बावली की देखभाल करना चाहता है – आखिर बावली उनके संस्थापक की यादगार जो है. ए एस आई ने विधिवत ढंग से एक एम ओ यू (इकरारनामा) तैयार किया दोनों पक्षों ने उस पर हस्ताक्षर किये और बावली अग्रवाल समाज के हवाले कर दी गयी.
अग्रवाल समाज को शायद उस शिलालेख से भी ऐतराज़ था जो बावली के बाहर ए एस आई ने लगाया हुआ था और ऐतराज़ वाजिब भी था अग्रवाल समाज का “विश्वास” है के बावली महाराज अग्रसेन की बनवाई हुई थी और शिलालेख पर, जहाँ तक हमें याद है, यह लिखा हुआ था के ‘उग्रसेन की बावली के नाम से मशहूर इस बावली का निर्माण सल्तनत काल की वास्तुकला का एक सुन्दर नमूना है’. इस तरह की बात ज़ाहिर है अस्वीकार्य थी और फ़ौरी तौर पर भूल सुधार की आवश्यकता थी. लिहाज़ा भूल सुधार दी गयी. अब जो नया शिलालेख वहां लगाया गया है उस पर साफ़ साफ़ लिखा है के “इस बावली का निर्माण अग्रवाल समुदाय के पूर्वज, राजा उग्रसेन, द्वारा किया गया था.” यह अलग बात है के शिलालेख पर अंग्रेजी में इस बात को ज़रा अलग ढंग से इस तरह कहा गया है “ कहा जाता है के इस बावली का निर्माण अग्रवाल समुदाय के पूर्वज, राजा उग्रसेन, द्वारा किया गया था.” (यह भी दिलचस्प बात है कि राजा का नाम कहीं ‘उग्रसेन’ तो कहीं ‘अग्रसेन’ लिखा जाता आया है.)
ज़ाहिर है जब राष्ट्रीय धरोहर का हिस्सा होने के बावजूद किसी इमारत की देख भाल की ज़िम्मेदारी सरकार द्वारा निजी इदारों को सौंप दी जायेगी तो इन इमारतों को अपना इतिहास नए संरक्षकों की मर्ज़ी के अनुसार ढालना तो पड़ेगा ही. सो तुगलक या लोदी काल की वास्तुकला का नमूना महाराजा उग्रसेन की स्थापत्य शैली का नमूना बन गया. महराजा उग्रसेन का ऐतिहासिक समय और काल स्थापित करने की आवश्यकता है, ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं, ज़रुरत भी नहीं थी, क्योंकि महाराजा उग्रसेन का अस्तित्व विश्वास से जुडा है और किस की हिम्मत है कि विश्वास के सवालों को सत्य की कसौटी पर परखने की मांग करे, अगर कोई ऐसा दुस्साहस करे भी तो उसे बता दिया जाएगा के इस तरह की खोजों की न तो आवश्यकता है और न इस तरह के प्रश्न पूछना जायज़ है.
इस तरह की विचित्र घटनाएँ इस देश में अब काफी नियमित ढंग से होने लगी हैं, अयोध्या में एक प्राचीन इमारत को इस लिए ढहा दिया गया क्योंके कुछ लोगों का यह “विश्वास” था के भगवन राम का ठीक उसी स्थान पर जन्म हुआ था. यह बात के “इस विश्वास” को इतिहास की  पैनी दृष्टि द्वारा परखना ज़रूरी है कभी बहस का मुद्दा बनने ही नहीं दिया गया. बलके इस तरह की बात करने वाले राष्ट्रद्रोही करार दिए गए और उन्हें सुझाव भी दिया गया के अगर वो “भारतीयों” के विश्वासों और मान्यताओं को अपना नहीं सकते तो बेहतर होगा के वो अपनी व्यवस्था कही और कर लें.
कुछ लोगों का आज भी विश्वास है के पृथ्वी चपटी है और सूर्य और चन्द्र को पृथ्वी पर प्रकाश फेलाने के लिए बनाया गया है. क्या आप ऐसे लोगों को कुछ भी समझा सकते हैं? वो जिनका विश्वास है के  समस्त सृष्टि की रचना हफ्ते दस दिन में कर दी गयी थी और इंसान तो मिटटी का पुतला है आदि, आदि – क्या उनके साथ किसी भी ढंग के तर्कसंगत विचार विमर्श की कोई भी सम्भावना आपको नज़र आती है?
वो चीज़ें जो विश्वास के घेरे में ले आई जाएँ उन पर बहस नहीं हो सकती क्योंके विश्वास करने वाला तो कुछ और सुनने के लिए तैयार ही नहीं होता और वो इस लिए के उस के पास तो ब्रह्म सत्य है और इसका सबूत के वो ब्रह्म सत्य का ज्ञाता है केवल स्वयं उसका कथन होता हैं और इसलिए वो किसी और की बात सुनने को तैयार ही नहीं होता.
तथ्यों पर आधारित साक्ष्यों की बिना पर बात करना और विश्वास को तथ्यों से भी ज्यादा महत्व देना दो परस्पर विपरीत दृष्टकोण हैं. यह ऐसे परस्पर विरोधी विश्व दर्शन हैं जिनके बीच कोई सम्वाद संभव नहीं हैं.
वो सवाल जो आज हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है वो यह है के क्यों आधुनिक राष्ट्र का सपना देखने और दिखाने वाला नेतृत्व इतनी आसानी से किसी ऐसे छुट भईये साधू की बातों में आ जाता है जिसका नाम आज से दस दिन पहले दस गाँव के बाहर कोई नहीं जानता था. वैसे अगर वो विश्व विख्यात महात्मा भी होता तब भी क्या उसकी बे सर पैर की बातों पर विश्वास और अमल करना किसी तरह के हालात में ज़रूरी होता
१००० टन सोना एक ऐसे राजा के महल में कैसे हो सकता है जिसका नाम उस समय के अवध के ३० बड़े ज़मींदारों की फेहरिस्त में भी नहीं आता? यह कैसा सोना है जो अगर दीवाली से पहले खोद कर नहीं निकाल लिया गया तो लुप्त हो जाएगा.
इस बात से किसी को एतराज़ नहीं हो सकता के पुरातत्व विभाग को खुदाई करनी चाहिए ताके हमारे अतीत के बुहत से उलझे सवालों को सुलझाने में मदद मिल सके, मगर यह फैसला के कहाँ खुदाई की जानी है और कब, इसका फैसला ऐतिहासिक तथ्यों की रौशनी में पुरातत्ववेत्ताओं और विशेषज्ञों द्वारा और इस काम के लिए स्थापित की गयी संस्था ए एस आई द्वारा लिया जाना चाहिए, महंतों, मौलवियों, पादरियों, साधुओं, बाबुओं, आसारामों निर्मल बाबाओं या उनके दबाव में आ कर आदेश जारी करने वाले नेताओं और उनके चाटुकारों द्वारा नहीं.
यह तीनों मामले, उग्रसेन की बावली, बाबरी मस्जिद और १००० टन सोने की यह अनोखी तलाश जो हमारी समस्त समस्याओं का चुटकी बचाते में निवारण कर देगी और जिसने रातों रात सारे देश को संसार भर के संचार साधनों का चहेता बना दिया है, ऐसे मामले हैं जिन्हें विशेषज्ञों के हवाले करना चाहिए था मगर हमने नहीं किया. इन तीनों मामलों में हमने प्रतिगामी शक्तियों के सामने घुटने टेक दिए. क्या कोई हमें बताएगा के देश को प्रगति और आधुनिकता के शिखर पर स्थापित करने की यह कौन से रणनीति है?

Tuesday 20 August 2013

रिक्शेवाले का बेटा बना IAS officer !


ये  कहानी  है  Govind Jaiswal की , गोविन्द   के  पिता  एक  रिक्शा -चालक  थे , बनारस  की  तंग  गलियों  में  , एक  12 by 8 के  किराए  के  कमरे  में  रहने  वाला  गोविन्द  का  परिवार  बड़ी  मुश्किल  से  अपना  गुजरा  कर  पाता  था . ऊपर से  ये  कमरा  ऐसी  जगह  था  जहाँ  शोर -गुल  की कोई  कमी  नहीं  थी , अगल-बगल  मौजूद  फक्ट्रियों  और  जनरेटरों  के  शोर  में  एक  दूसरे  से  बात  करना  भी  मुश्किल  था .
नहाने -धोने  से  लेकर  खाने -पीने  तक  का  सारा  काम इसी  छोटी  सी जगह  में  Govind , उनके  माता -पिता  और  दो  बहने  करती  थीं . पर  ऐसी  परिस्थिति  में  भी  गोविन्द  ने  शुरू  से  पढाई  पर  पूरा  ध्यान  दिया .
अपनी  पढाई  और  किताबों  का  खर्चा  निकालने  के  लिए  वो   class 8 से  ही  tuition पढ़ाने  लगे . बचपन  से  एक  असैक्षिक  माहौल  में  रहने  वाले  गोविन्द  को  पढाई  लिखाई   करने  पर  लोगों  के  ताने  सुनने पड़ते  थे . “ चाहे  तुम  जितना  पढ़ लो  चलाना  तो  रिक्शा  ही  है ” पर  गोविन्द  इन  सब  के  बावजूद  पढाई  में  जुटे  रहते . उनका  कहना  है . “ मुझे  divert करना  असंभव था .अगर  कोई  मुझे  demoralize करता  तो  मैं  अपनी  struggling family के  बारे  में  सोचने  लगता .”
आस - पास  के  शोर  से  बचने  के  लिए  वो  अपने  कानो  में  रुई लगा  लेते  , और  ऐसे  वक़्त  जब  disturbance ज्यादा  होती  तब  Maths लगाते  , और  जब  कुछ  शांती  होती  तो  अन्य  subjects पढ़ते .रात में  पढाई के लिए अक्सर उन्हें मोमबत्ती, ढेबरी , इत्यादि का सहारा लेना पड़ता क्योंकि उनके इलाके में १२-१४ घंटे बिजली कटौती रहती.
चूँकि   वो  शुरू  से  school topper रहे  थे  और  Science subjects में  काफी  तेज  थे  इसलिए   Class 12 के  बाद  कई  लोगों  ने  उन्हें  Engineering करने  की  सलाह  दी ,. उनके  मन  में  भी  एक  बार  यह विचार  आया , लेकिन  जब  पता  चला  की  Application form की  fees ही  500 रुपये  है  तो  उन्होंने  ये  idea drop कर  दिया , और  BHU से  अपनी  graduation करने  लगे , जहाँ  सिर्फ  10 रूपये की औपचारिक fees थी .
Govind अपने  IAS अफसर बनने  के  सपने  को  साकार  करने  के  लिए  पढ़ाई  कर  रहे  थे  और  final preparation के  लिए  Delhi चले  गए  लेकिन  उसी  दौरान   उनके  पिता  के  पैरों  में  एक  गहरा  घाव  हो  गया  और  वो  बेरोजगार  हो  गए . ऐसे  में  परिवार  ने  अपनी  एक  मात्र  सम्पत्ती  , एक  छोटी  सी  जमीन  को  30,000 रुपये  में  बेच  दिया  ताकि  Govind अपनी  coaching पूरी  कर  सके . और  Govind ने  भी  उन्हें  निराश  नहीं  किया , 24 साल  की  उम्र  में  अपने  पहले  ही attempt में (Year 2006)  474 सफल  candidates में  48 वाँ  स्थान  लाकर  उन्होंने  अपनी  और  अपने  परिवार  की  ज़िन्दगी  हमेशा -हमेशा  के  लिए  बदल  दी .
Maths पर  command होने  के  बावजूद  उन्होंने  mains के  लिए  Philosophy और  History choose किया , और  प्रारंभ  से  इनका  अध्यन  किया ,उनका कहना  है  कि , “ इस  दुनिया  में  कोई  भी  subject कठिन  नहीं  है , बस आपके  अनादर  उसे  crack करने  की  will-power होनी  चाहिए .”
अंग्रेजी  का  अधिक  ज्ञान  ना  होने पर  उनका  कहना  था , “ भाषा  कोई  परेशानी  नहीं  है , बस  आत्मव्श्वास  की ज़रुरत  है . मेरी  हिंदी  में  पढने  और  व्यक्त  करने  की  क्षमता  ने  मुझे  achiever बनाया .अगर  आप  अपने  विचार  व्यक्त  करने  में  confident हैं  तो  कोई  भी  आपको  सफल  होने  से  नहीं  रोक  सकता .कोई  भी  भाषा  inferior या  superior नहीं  होती . ये  महज  society द्वारा  बनाया  गया  एक  perception है .भाषा  सीखना  कोई  बड़ी  बात  नहीं  है - खुद  पर  भरोसा  रखो . पहले  मैं  सिर्फ  हिंदी  जानता  था ,IAS academy में  मैंने  English पर  अपनी  पकड़  मजबूत  की . हमारी  दुनिया  horizontal है —ये  तो  लोगों  का  perception है  जो  इसे  vertical बनता  है , और  वो  किसी  को  inferior तो  किसी  को  superior बना  देते  हैं .”
 गोविन्द  जी  की  यह  सफलता  दर्शाती  है  की  कितने  ही  आभाव  क्यों  ना  हो  यदि  दृढ  संकल्प  और  कड़ी मेहनत   से  कोई  अपने  लक्ष्य -प्राप्ति  में  जुट  जाए  तो  उसे  सफलता  ज़रूर  मिलती  है . आज  उन्हें  IAS officer बने  7 साल  हो  चुके  हैं  पर  उनके  संघर्ष  की  कहानी  हमेशा  हमें प्रेरित  करती  रहेगी .
Quotes:-
Think big, think fast, think ahead. Ideas are no one’s monopoly.
बड़ा  सोचो , जल्दी  सोअचो , आगे  सोचो . विचारों  पर  किसी  का  एकाधिकार  नहीं  है .

www.hypersmash.com

Sunday 18 August 2013

Inspirational Story


Inspirational Real Life Story

वर्ष 1883 इंजीनियर John Roebling के जीवन में एक महत्वपूर्ण वर्ष था, इस वर्ष वह न्यूयॉर्क से लांग आईलैंड  को जोड़ने  के लिए एक शानदार पुल का निर्माण करने के लिए अपने विचार के साथ आया था. इसकी भयावहता का कोई अन्य पुल समय के उस बिंदु पर वहाँ नहीं था.बाद मे विशेषज्ञों  ने इसे एक असम्भव उपलब्धि कह कर उनके इस विचार को खारिज कर दिया. पूरी दुनिया उनके विचार के खिलाफ थी और उसे योजना ड्रॉप करने के लिए कहा गया.
                                                    Roebling के intuition ने उसे कह रखा था कि उसकी दृष्टि पुल के बारे में सही है. Roebling को उसके विचार के लिए केवल एक आदमी का समर्थन प्राप्त था वो था उसका बेटा Washington. Washington भी एक इंजिनियर था. उन्होंने एक साथ एक विस्तृत योजना तैयार की और आवश्यक टीम को भर्ती किया. वे अच्छी तरह से इस मकसद के लिए तैयार थे. पुल निर्माण का काम शुरू किया गया पर परन्तु  कार्यस्थल पर  हुई एक दुर्घटना मे Roebling की म्रत्यु हो गई. आम तौर पर कोई और होता तो इस कार्य को छोड देता, लेकिन वाशिंगटन जानता था कि उसके पिता का सपना पूरा हो सकता है.
पर किस्मत तो देखिये, वाशिंगटन को मस्तिष्क क्षति का सामना करना पड़ा और वह स्थिर हो गया ,वह इस हद तक घायल हो गया था कि न तो चल सकता था और न ही बात कर सकता था,यहाँ तक कि हिल भी नहीं सकता था. As usual विशेषज्ञों जिन्होंने पुल का निर्माण नहीं करने सलाह दी थी उन्होंने दोनों को पागल और मूर्ख करार दिया. वॉशिंगटन अपनी सेवाओं का विस्तार करने की स्थिति में नहीं था पर निर्माण परियोजना को समाप्त करने के बारे में भी नही सोच रहा था. वह अपने उद्देश्य के बारे में स्पष्ट था.
वह बातचीत करने के लिए अपनी पत्नी पर पूरी तरह से निर्भर करता था. उसने बातचीत करने के लिए अपनी एक चलती उंगली का इस्तेमाल किया aur अपनी बात समझाने की एक कोड प्रणाली विकसित की . शुरू में हर किसी को वह मूर्ख लगा. पर वाशिंगटन ने हार नहीं मानी, अगले 13 सालों तक उसकी पत्नी ने उसके निर्देशों की व्याख्या की और इंजीनियरों को समझाया . इंजिनियर उसके निर्देशों पर काम करते गए और आखिरकार Brooklyn Bridge हकीकत में बन कर तैयार हो गया . आज ब्रुकलिन ब्रिज एक शानदार spectacular land mark के रूप मे बाधाओं का सामना करने वाले लोगों के लिए एक प्रेरणादायक ट्रू लाइफ स्टोरी के रूप में खड़ा है.
परिस्थितियों को अपनी शक्ति खत्म करने की  अनुमति कभी नहीं देनी चाहिए. इस तरह प्यार, समर्पण, प्रतिबद्धता, विश्वास, दृष्टि और अधिक महत्वपूर्ण बात  “हार कभी नहीं” के रूप में इस प्रेरणादायक सच्चेजीवन की कहानी से बहुत सी चीजें सीखी जा सकती हैं! सब कुछ संभव है ….

Quotes:-
Climbing to the top demands strength, whether it is to the top of Mount Everest or to the top of your career.

68 साल के रिटायर्ड आर्मी अधिकारी के इस हौसले को आप भी सलाम करेंगे

मोटरसाइकिल से देश में सबसे लंबी यात्रा कर रिकार्ड बनाने निकले 68 वर्षीय रिटायर्ड आर्मी अधिकारी मोहम्मद अब्दुल कलीम सार्क देशों की बाइक से...